चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आइना झूट बोलता ही नहीं
in golden frame you may display
untruth the mirror will not say
कृष्ण बिहारी नूर
इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं
इंतिहा ये है कि मरने की भी हसरत न रही
At the start, life prolonged,was my deep desire
now at the end, even for death, I do not aspire
माहिर-उल क़ादरी
नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
वो निकली धूप साया जा रहा है
from the confines of the veil your face is now being freed
lo sunshine now emerges, the shadows now recede
माहिर-उल क़ादरी
अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
the winds will now decide what happens to the light
those lamps that have the strength, will survive the night
महशर बदायुनी
मैं उस के वादे का अब भी यक़ीन करता हूँ
हज़ार बार जिसे आज़मा लिया मैं ने
To this day her promises I do still believe
who a thousand times has been wont to deceive
मख़मूर सईदी
ये अपने दिल की लगी को बुझाने आते हैं
पराई आग में जलते नहीं हैं परवाने
they come to extinguish the fire in their heart
in senseless immolation the moths do not take part
मख़मूर सईदी
दरिया के तलातुम से तो बच सकती है कश्ती
कश्ती में तलातुम हो तो साहिल न मिलेगा
from the storms of the seas the ship might well survive
but if the storm is in the ship, no shore can then arrive
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद