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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को
टपकती हैं अभी तक रस्सियाँ आहिस्ता आहिस्ता

अहमद मुश्ताक़




जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय

अहमद मुश्ताक़




जैसे पौ फट रही हो जंगल में
यूँ कोई मुस्कुराए जाता है

अहमद मुश्ताक़




जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

अहमद मुश्ताक़




जो मुक़द्दर था उसे तो रोकना बस में न था
उन का क्या करते जो बातें ना-गहानी हो गईं

अहमद मुश्ताक़




कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी

अहमद मुश्ताक़




कैसे आ सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत
कौन कहता है कि ये सब कुछ फ़ना हो जाएगा

अहमद मुश्ताक़