बरस कर खुल गया अब्र-ए-ख़िज़ाँ आहिस्ता आहिस्ता
हवा में साँस लेते हैं मकाँ आहिस्ता आहिस्ता
बहुत अर्सा लगा रंग-ए-शफ़क़ मादूम होने में
हुआ तारीक नीला आसमाँ आहिस्ता आहिस्ता
कहीं पत्तों के अंदर धीमी धीमी सरसराहट है
अभी हिलने लगेंगी डालियाँ आहिस्ता आहिस्ता
जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को
टपकती हैं अभी तक रस्सियाँ आहिस्ता आहिस्ता
समाअ'त में अभी तक आहटों के फूल खिलते हैं
कोई चलता है दिल के दरमियाँ आहिस्ता आहिस्ता
बदल जाएगा मौसम दर्द की शाख़-ए-बरहना में
निकलती आ रही हैं पत्तियाँ आहिस्ता आहिस्ता
ग़ज़ल
बरस कर खुल गया अब्र-ए-ख़िज़ाँ आहिस्ता आहिस्ता
अहमद मुश्ताक़