कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी
न किसी का दामन-ए-चाक था न किसी की तर्फ़-ए-कुलाह थी
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
दिल-ए-कम-अलम पे वो कैफ़ियत कि ठहर सके न गुज़र सके
न हज़र ही राहत-ए-रूह था न सफ़र में रामिश राह थी
मिरे चार-दांग थी जल्वागर वही लज़्ज़त-ए-तलब-ए-सहर
मगर इक उम्मीद-ए-शिकस्ता-पर कि मिसाल-ए-दर्द सियाह थी
वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया
उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी
ग़ज़ल
कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी
अहमद मुश्ताक़