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चमक-दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय | शाही शायरी
chamak-damak pe na jao khari nahin koi shai

ग़ज़ल

चमक-दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय

अहमद मुश्ताक़

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चमक-दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय
सिवाए शाख़-ए-तमन्ना हरी नहीं कोई शय

दिल-ए-गुदाज़ ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर के बग़ैर
ये इल्म ओ फ़ज़्ल ये दानिश-वरी नहीं कोई शय

तो फिर ये कशमकश-ए-दिल कहाँ से आई है
जो दिल-गिरफ़्तगी ओ दिलबरी नहीं कोई शय

अजब हैं वो रुख़ ओ गेसू कि सामने जिन के
ये सुब्ह ओ शाम की जादूगरी नहीं कोई शय

मलाल-ए-साया-ए-दीवार-ए-यार के आगे
शब-ए-तरब तिरी नीलम-परी नहीं कोई शय

जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय

तिरी नज़र की गुलाबी है शीशा-ए-दिल में
कि हम ने और तो इस में भरी नहीं कोई शय