अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
परवीन शाकिर
आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया
परवीन शाकिर
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
परवीन शाकिर
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
परवीन शाकिर
बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन
वो जानता था कि है एहतिमाम किस के लिए
परवीन शाकिर
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
यही क्या कम है कि निस्बत मुझे इस ख़ाक से है
परवीन शाकिर
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ
परवीन शाकिर
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की
और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए
परवीन शाकिर
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
परवीन शाकिर