ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
परवीन शाकिर
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ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह
परवीन शाकिर
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