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जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी | शाही शायरी
jaga sake na tere lab lakir aisi thi

ग़ज़ल

जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी

परवीन शाकिर

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जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी
हमारे बख़्त की रेखा भी 'मीर' ऐसी थी

ये हाथ चूमे गए फिर भी बे-गुलाब रहे
जो रुत भी आई ख़िज़ाँ की सफ़ीर ऐसी थी

वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
जो माँगता उसे देती अमीर ऐसी थी

शहादतें मिरे हक़ में तमाम जाती थीं
मगर ख़मोश थे मुंसिफ़ नज़ीर ऐसी थी

कतर के जाल भी सय्याद की रज़ा के बग़ैर
तमाम उम्र न उड़ती असीर ऐसी थी

फिर उस के बाद न देखे विसाल के मौसम
जुदाइयों की घड़ी चश्म-गीर ऐसी थी

बस इक निगाह मुझे देखता चला जाता
उस आदमी की मोहब्बत फ़क़ीर ऐसी थी

रिदा के साथ लुटेरे को ज़ाद-ए-रह भी दिया
तिरी फ़राख़-दिली मेरे वीर ऐसी थी

कभी न चाहने वालों का ख़ूँ-बहा माँगा
निगार-ए-शहर-ए-सुख़न बे-ज़मीर ऐसी थी