वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
तिरी जुदाई में किस तरह सब्र आ जाता
फ़सीलें तोड़ न देते जो अब के अहल-ए-क़फ़स
तू और तरह का एलान-ए-जब्र आ जाता
वो फ़ासला था दुआ और मुस्तजाबी में
कि धूप माँगने जाते तो अब्र आ जाता
वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता
वज़ीर ओ शाह भी ख़स-ख़ानों से निकल आते
अगर गुमान में अँगार-ए-क़ब्र आ जाता
ग़ज़ल
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
परवीन शाकिर