आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया
परवीन शाकिर
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
Till even now in rainy climes, my limbs are aching, sore
The yen to stretch out languidly then comes to the fore
परवीन शाकिर
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
परवीन शाकिर
अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं
वो ताँक-झाँक का मासूम सिलसिला भी गया
परवीन शाकिर
अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
परवीन शाकिर
अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई
बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ
परवीन शाकिर
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई
परवीन शाकिर
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे
परवीन शाकिर
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
परवीन शाकिर