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मुनीर नियाज़ी शायरी | शाही शायरी

मुनीर नियाज़ी शेर

116 शेर

अपने घरों से दूर बनों में फिरते हुए आवारा लोगो
कभी कभी जब वक़्त मिले तो अपने घर भी जाते रहना

मुनीर नियाज़ी




आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही

मुनीर नियाज़ी




बड़ी मुश्किल से ये जाना कि हिज्र-ए-यार में रहना
बहुत मुश्किल है पर आख़िर में आसानी बहुत है

मुनीर नियाज़ी




बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता

मुनीर नियाज़ी




बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ख़ून की इक बूँद काग़ज़ को रंगीला कर गई

मुनीर नियाज़ी




बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना

मुनीर नियाज़ी




चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
देखना फिर बहर को उस की कशिश से जागता

मुनीर नियाज़ी




चाहता हूँ मैं 'मुनीर' इस उम्र के अंजाम पर
एक ऐसी ज़िंदगी जो इस तरह मुश्किल न हो

मुनीर नियाज़ी




चमक ज़र की उसे आख़िर मकान-ए-ख़ाक में लाई
बनाया साँप ने जिस्मों में घर आहिस्ता आहिस्ता

मुनीर नियाज़ी