ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआ
बारे वो शोख़ पहले से चालाक तो हुआ
मुनीर नियाज़ी
आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
मुनीर नियाज़ी
ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया
मुनीर नियाज़ी
एक वारिस हमेशा होता है
तख़्त ख़ाली रहा नहीं करता
मुनीर नियाज़ी
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ
मुनीर नियाज़ी
डूब चला है ज़हर में उस की आँखों का हर रूप
दीवारों पर फैल रही है फीकी फीकी धूप
मुनीर नियाज़ी
दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
शाम आते ही आँखों में वो रंग पुराने आ जाते हैं
मुनीर नियाज़ी
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
याद पीछे खींचती है आस आगे की तरफ़
मुनीर नियाज़ी