पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
वो उस का साया था कि वही रश्क-ए-हूर था
कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
रोया था कौन कौन मुझे कुछ ख़बर नहीं
मैं उस घड़ी वतन से कई मील दूर था
शाम-ए-फ़िराक़ आई तो दिल डूबने लगा
हम को भी अपने आप पे कितना ग़ुरूर था
चेहरा था या सदा थी किसी भूली याद की
आँखें थीं उस की यारो कि दरिया-ए-नूर था
निकला जो चाँद आई महक तेज़ सी 'मुनीर'
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई ज़रूर था
ग़ज़ल
पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
मुनीर नियाज़ी