क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा
जितना तक़दीर में लिक्खा है अदा होता है
मुनीर नियाज़ी
लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
बरखा की रुत का क़हर है और हम हैं दोस्तो
मुनीर नियाज़ी
लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ख़याल तुझ को दिल-ए-बे-क़रार किस का था
मुनीर नियाज़ी
महक अजब सी हो गई पड़े पड़े संदूक़ में
रंगत फीकी पड़ गई रेशम के रूमाल की
मुनीर नियाज़ी
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी ज़माने में
मुनीर नियाज़ी
मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं
दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा
मुनीर नियाज़ी
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
मैं उस को देख के चुप था उसी की शादी में
मज़ा तो सारा इसी रस्म के निबाह में था
मुनीर नियाज़ी
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख
मुनीर नियाज़ी