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थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली | शाही शायरी
thi jis ki justuju wo haqiqat nahin mili

ग़ज़ल

थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली

मुनीर नियाज़ी

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थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
इन बस्तियों में हम को रिफ़ाक़त नहीं मिली

अब तक हैं इस गुमाँ में कि हम भी हैं दहर में
इस वहम से नजात की सूरत नहीं मिली

रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली

कहना था जिस को उस से किसी वक़्त में मुझे
इस बात के कलाम की मोहलत नहीं मिली

कुछ दिन के बा'द उस से जुदा हो गए 'मुनीर'
उस बेवफ़ा से अपनी तबीअ'त नहीं मिली