नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं
मुनीर नियाज़ी
पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
हुस्न वालों की सादगी न गई
मुनीर नियाज़ी
क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
गुल-ए-हिना को हथेली में थाम कर बैठा
मुनीर नियाज़ी
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
गूँज उट्ठे बाम-ओ-दर मेरी सदा के सामने
मुनीर नियाज़ी
रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली
मुनीर नियाज़ी
रोया था कौन कौन मुझे कुछ ख़बर नहीं
मैं उस घड़ी वतन से कई मील दूर था
मुनीर नियाज़ी
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख
मुनीर नियाज़ी
शहर का तब्दील होना शाद रहना और उदास
रौनक़ें जितनी यहाँ हैं औरतों के दम से हैं
मुनीर नियाज़ी
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
रात बादल इस तरह आए कि मैं तो डर गया
मुनीर नियाज़ी