ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ
तू आ के जा भी चुका है मैं इंतिज़ार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
मैं ख़्वाब में तो हूँ लेकिन ख़याल भी है मुझे
मुनीर नियाज़ी
ये नमाज़-ए-अस्र का वक़्त है
ये घड़ी है दिन के ज़वाल की
मुनीर नियाज़ी
ये सफ़र मा'लूम का मालूम तक है ऐ 'मुनीर'
मैं कहाँ तक इन हदों के क़ैद-ख़ानों में रहूँ
मुनीर नियाज़ी
ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी
ये शहर जम के खड़ा है जो तैरता ही न हो
मुनीर नियाज़ी
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा
मुनीर नियाज़ी
ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
मुर्दा लोगों की आदतें बाक़ी
मुनीर नियाज़ी
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
दुनिया से ख़ामुशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी