वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
रेशमी मल्बूस की ख़ुश्बू से जादू कर गया
इक झलक देखी थी उस रू-ए-दिल-आरा की कभी
फिर न आँखों से वो ऐसा दिलरुबा मंज़र गया
शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
रात बादल इस तरह आए कि मैं तो डर गया
थी वतन में मुंतज़िर जिस की कोई चश्म-ए-हसीं
वो मुसाफ़िर जाने किस सहरा में जल कर मर गया
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया
ग़ज़ल
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
मुनीर नियाज़ी