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हैं रवाँ उस राह पर जिस की कोई मंज़िल न हो | शाही शायरी
hain rawan us rah par jis ki koi manzil na ho

ग़ज़ल

हैं रवाँ उस राह पर जिस की कोई मंज़िल न हो

मुनीर नियाज़ी

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हैं रवाँ उस राह पर जिस की कोई मंज़िल न हो
जुस्तुजू करते हैं उस की जो हमें हासिल न हो

दश्त-ए-नज्द-ए-यास में दीवानगी हो हर तरफ़
हर तरफ़ महमिल का शक हो पर कहीं महमिल न हो

वहम ये तुझ को अजब है ऐ जमाल-ए-कम-नुमा
जैसे सब कुछ हो मगर तू दीद के क़ाबिल न हो

वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूँ उसे इस ख़ौफ़ में दाख़िल न हो

चाहता हूँ मैं 'मुनीर' इस उम्र के अंजाम पर
एक ऐसी ज़िंदगी जो इस तरह मुश्किल न हो