शहर में वो मो'तबर मेरी गवाही से हुआ
फिर मुझे इस शहर में ना-मो'तबर उस ने किया
मुनीर नियाज़ी
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया
मुनीर नियाज़ी
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
उन उम्मतों का ज़िक्र जो रस्तों में मर गईं
मुनीर नियाज़ी
तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'
वो ज़र-फ़िशानियाँ तिरे रुख़ की किधर गईं
मुनीर नियाज़ी
तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
देर तक बैठा रहा मैं उस हवा के सामने
मुनीर नियाज़ी
था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
इस का अंदाज़ा सफ़र की राइगानी से हुआ
मुनीर नियाज़ी
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
मैं बस की खिड़कियों से ये तमाशे देख लेता हूँ
मुनीर नियाज़ी
तुम मेरे लिए इतने परेशान से क्यूँ हो
मैं डूब भी जाता तो कहीं और उभरता
मुनीर नियाज़ी
तू भी जैसे बदल सा जाता है
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही
मुनीर नियाज़ी