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मुनीर नियाज़ी शायरी | शाही शायरी

मुनीर नियाज़ी शेर

116 शेर

डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
ज़र के ज़ोर से ज़िंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

मुनीर नियाज़ी




दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
मैं फ़क़त ख़ुश्बू से उस की ताज़ा-दम सा हो गया

मुनीर नियाज़ी




देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी

मुनीर नियाज़ी




दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
याद पीछे खींचती है आस आगे की तरफ़

मुनीर नियाज़ी




दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाएँ हम तो क्या

मुनीर नियाज़ी




दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
शाम आते ही आँखों में वो रंग पुराने आ जाते हैं

मुनीर नियाज़ी




डूब चला है ज़हर में उस की आँखों का हर रूप
दीवारों पर फैल रही है फीकी फीकी धूप

मुनीर नियाज़ी




एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ

मुनीर नियाज़ी




एक वारिस हमेशा होता है
तख़्त ख़ाली रहा नहीं करता

मुनीर नियाज़ी