महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए 
देखते ही देखते हम क्या से क्या होते गए 
ना-शनासी दहर की तन्हा हमें करती गई 
होते होते हम ज़माने से जुदा होते गए 
मुंतज़िर जैसे थे दर शहर-ए-फ़िराक़-आसार के 
इक ज़रा दस्तक हुई दर दम में वा होते गए 
हर्फ़ पर्दा-पोश थे इज़हार-ए-दिल के बाब में 
हर्फ़ जितने शहर में थे हर्फ़-ए-ला होते गए 
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर' 
आज कल होता गया और दिन हवा होते गए
        ग़ज़ल
महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए
मुनीर नियाज़ी

