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हुस्न शायरी | शाही शायरी

हुस्न

110 शेर

देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

जाँ निसार अख़्तर




अब तो तेरे हुस्न की हर अंजुमन में धूम है
जिस ने मेरा हाल देखा तेरा दीवाना हुआ

जमील यूसुफ़




बुर्क़ा-पोश पठानी जिस की लाज में सौ सौ रूप
खुल के न देखी फिर भी देखी हम ने छाँव में धूप

जमीलुद्दीन आली




रोज़ इक महफ़िल और हर महफ़िल नारियों से भरपूर
पास भी हों तो जान के बैठें 'आली' सब से दूर

जमीलुद्दीन आली




हुस्न के हर जमाल में पिन्हाँ
मेरी रानाई-ए-ख़याल भी है

जिगर मुरादाबादी




हुस्न को भी कहाँ नसीब 'जिगर'
वो जो इक शय मिरी निगाह में है

जिगर मुरादाबादी




इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का
क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम

जिगर मुरादाबादी