अब तो अपने जिस्म का साया भी बेगाना हुआ
मैं तिरी महफ़िल में आ कर और भी तन्हा हुआ
वक़्फ़-ए-दर्द-ए-जाँ हुआ महव-ए-ग़म-ए-दुनिया हुआ
दिल अजब शय है कभी क़तरा कभी दरिया हुआ
तेरी आहट के तआक़ुब में हूँ सदियों से रवाँ
रास्तों के पेच-ओ-ख़म में ठोकरें खाता हुआ
लज़्ज़त-ए-दीदार की ऐ साअत-ए-रख़्शाँ ठहर
पढ़ रहा हूँ मैं तिरे चेहरे पे कुछ लिक्खा हुआ
अब तो तेरे हुस्न की हर अंजुमन में धूम है
जिस ने मेरा हाल देखा तेरा दीवाना हुआ
वो समय रुख़्सत हुए हमदम वो शामें खो गईं
किन ख़यालों के झमेलों में है तू उलझा हुआ
ग़ज़ल
अब तो अपने जिस्म का साया भी बेगाना हुआ
जमील यूसुफ़