हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया
दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्न-ए-तरब में हम
मल्बूस-ए-दिल को तन का लबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद
सर ज़ेर-ए-बार-ए-साग़र-ओ-बादा नहीं किया
कार-ए-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया
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ग़ज़ल
हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया
परवीन शाकिर