EN اردو
अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ | शाही शायरी
agarche tujhse bahut iKHtilaf bhi na hua

ग़ज़ल

अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ

परवीन शाकिर

;

अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ
मगर ये दिल तिरी जानिब से साफ़ भी न हुआ

तअ'ल्लुक़ात के बर्ज़ख़ में ही रखा मुझ को
वो मेरे हक़ में न था और ख़िलाफ़ भी न हुआ

अजब था जुर्म-ए-मोहब्बत कि जिस पे दिल ने मिरे
सज़ा भी पाई नहीं और मुआ'फ़ भी न हुआ

मलामतों में कहाँ साँस ले सकेंगे वो लोग
कि जिन से कू-ए-जफ़ा का तवाफ़ भी न हुआ

अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई
बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ

हवा-ए-दहर हमें किस लिए बुझाती है
हमें तो तुझ से कभी इख़्तिलाफ़ भी न हुआ