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बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने | शाही शायरी
baiTh jata hai wo jab mahfil mein aa ke samne

ग़ज़ल

बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने

मुनीर नियाज़ी

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बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
मैं ही बस होता हूँ उस की इस अदा के सामने

तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
देर तक बैठा रहा मैं उस हवा के सामने

रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
गूँज उट्ठे बाम-ओ-दर मेरी सदा के सामने

वो रंगीला हाथ मेरे दिल पे और उस की महक
शम-ए-दिल बुझ सी गई रंग-ए-हिना के सामने

मैं तो उस को देखते ही जैसे पत्थर हो गया
बात तक मुँह से न निकली बेवफ़ा के सामने

याद भी हैं ऐ 'मुनीर' उस शाम की तन्हाइयाँ
एक मैदाँ इक दरख़्त और तू ख़ुदा के सामने