तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
हिम्मत है तो मेरी हालत आँख मिला कर देख
शाम है गहरी तेज़ हवा है सर पे खड़ी है रात
रस्ता गए मुसाफ़िर का अब दिया जला कर देख
दरवाज़े के पास आ आ कर वापस मुड़ती चाप
कौन है इस सुनसान गली में पास बुला कर देख
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख
तू भी 'मुनीर' अब भरे जहाँ में मिल कर रहना सीख
बाहर से तो देख लिया अब अंदर जा कर देख
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
मुनीर नियाज़ी