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इफ़्तिख़ार आरिफ़ शायरी | शाही शायरी

इफ़्तिख़ार आरिफ़ शेर

105 शेर

दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
कोई तो हो जो मिरी वहशतों का साथी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़




अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
दिल नहीं होगा तो बैअत नहीं होगी हम से

इफ़्तिख़ार आरिफ़




बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई

इफ़्तिख़ार आरिफ़




बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं
और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़




बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए

इफ़्तिख़ार आरिफ़




बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत
वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़




अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई

इफ़्तिख़ार आरिफ़




अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया

इफ़्तिख़ार आरिफ़




अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया

इफ़्तिख़ार आरिफ़