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अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई | शाही शायरी
azab-e-wahshat-e-jaan ka sila na mange koi

ग़ज़ल

अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई

बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई

तमाम शहर मुकर्रम बस एक मुजरिम मैं
सो मेरे बा'द मिरा ख़ूँ-बहा न माँगे कोई

कोई तो शहर-ए-तज़ब्ज़ुब के साकिनों से कहे
न हो यक़ीन तो फिर मो'जिज़ा न माँगे कोई

अज़ाब-ए-गर्द-ए-ख़िज़ाँ भी न हो बहार भी आए
इस एहतियात से अज्र-ए-वफ़ा न माँगे कोई