अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई
बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई
तमाम शहर मुकर्रम बस एक मुजरिम मैं
सो मेरे बा'द मिरा ख़ूँ-बहा न माँगे कोई
कोई तो शहर-ए-तज़ब्ज़ुब के साकिनों से कहे
न हो यक़ीन तो फिर मो'जिज़ा न माँगे कोई
अज़ाब-ए-गर्द-ए-ख़िज़ाँ भी न हो बहार भी आए
इस एहतियात से अज्र-ए-वफ़ा न माँगे कोई
ग़ज़ल
अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
इफ़्तिख़ार आरिफ़