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इफ़्तिख़ार आरिफ़ शायरी | शाही शायरी

इफ़्तिख़ार आरिफ़ शेर

105 शेर

ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन
जो थक गया है तो अब उस को मुख़्तसर कर दे

इफ़्तिख़ार आरिफ़




वो मेरे नाम की निस्बत से मो'तबर ठहरे
गली गली मिरी रुस्वाइयों का साथी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़




यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था
अब इसी लहजा-ए-बे-बाक से ख़ौफ़ आता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़




यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ
अब के ख़ुद अपनी हवाओं में बुझा चाहती है

इफ़्तिख़ार आरिफ़




ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
यहाँ वा'दों की अर्ज़ानी बहुत है

इफ़्तिख़ार आरिफ़




ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
दुआ के दिन हैं मुसलसल दुआ किए जाएँ

इफ़्तिख़ार आरिफ़




ये मोजज़ा भी किसी की दुआ का लगता है
ये शहर अब भी उसी बे-वफ़ा का लगता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़




ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया
ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में

इफ़्तिख़ार आरिफ़




ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
इस कमाई पे तो इज़्ज़त नहीं मिलने वाली

इफ़्तिख़ार आरिफ़