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फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए | शाही शायरी
faza mein wahshat-e-sang-o-sinan ke hote hue

ग़ज़ल

फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए
क़लम है रक़्स में आशोब-ए-जाँ के होते हुए

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
ज़मीं बुलंद हुई आसमाँ के होते हुए

ब-ज़िद है दिल कि नए रास्ते निकाले जाएँ
निशान-ए-रह-गुज़र-ए-रफ़्तगाँ के होते हुए

जहान-ए-ख़ैर में इक हुजरा-ए-क़नाअत-ओ-सब्र
ख़ुदा करे कि रहे जिस्म ओ जाँ के होते हुए

क़दम क़दम पे दिल-ए-ख़ुश-गुमाँ ने खाई मात
रविश रविश निगह-ए-मेहरबाँ के होते हुए

मैं एक सिलसिला-ए-आतिशीं में बैअत था
सो ख़ाक हो गया नाम-ओ-निशाँ के होते हुए

मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए

उलझ रही थी हवाओं से एक कश्ती-ए-हर्फ़
पड़ी है रेत पे आब-ए-रवाँ के होते हुए

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए