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अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया | शाही शायरी
azab ye bhi kisi aur par nahin aaya

ग़ज़ल

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया

उस एक ख़्वाब की हसरत में जल बुझीं आँखें
वो एक ख़्वाब कि अब तक नज़र नहीं आया

करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

दिलों की बात बदन की ज़बाँ से कह देते
ये चाहते थे मगर दिल इधर नहीं आया

अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया

हरीम-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी से निस्बतें भी रहीं
मगर सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया