खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
हम अहल-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत हैं दिल निकाल के रख
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है
अजब कमाल है उस बेवफ़ा के लहजे में
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
बस एक रिज़्क़ का मंज़र नज़र में रक्खा जाए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में
अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
बदल गए तो बदलने पे इतनी हैरत क्या
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूँ तो मेरा ख़ुदा
उजाड़ दे मिरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए
इफ़्तिख़ार आरिफ़