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Hijr शायरी | शाही शायरी

Hijr

86 शेर

वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल न हुआ

हबीब अहमद सिद्दीक़ी




क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है

हफ़ीज़ जालंधरी




यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर ताला-ए-बेदार ने सोने न दिया

हैदर अली आतिश




शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'
हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ

हनीफ़ कैफ़ी




जुदाई की रुतों में सूरतें धुँदलाने लगती हैं
सो ऐसे मौसमों में आइना देखा नहीं करते

हसन अब्बास रज़ा




ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है

हसन नईम




कुछ ख़बर है तुझे ओ चैन से सोने वाले
रात भर कौन तिरी याद में बेदार रहा

हिज्र नाज़िम अली ख़ान