कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा
मुझ से इंकार रहा ग़ैर से इक़रार रहा
कुछ सरोकार नहीं जान रहे या न रहे
न रहा उन से तो फिर किस से सरोकार रहा
शब-ए-ख़ल्वत वही हुज्जत वही तकरार रही
वही क़िस्सा वही ग़ुस्सा वही इंकार रहा
तालिब-ए-दीद को ज़ालिम ने ये लिक्खा ख़त में
अब क़यामत पे मिरा वादा-ए-दीदार रहा
हाल-ए-दिल बज़्म में उस शोख़ से हम कह न सके
लब-ए-ख़ामोश की सूरत लब-ए-इज़हार रहा
कुछ ख़बर है तुझे ओ चैन से सोने वाले
रात भर कौन तिरी याद में बेदार रहा
इक नज़र नज़अ में देखी थी किसी की सूरत
मुद्दतों क़ब्र में बेचैन दिल-ए-ज़ार रहा
दिल हमारा था हमारा था हमारा लेकिन
उन के क़ाबू में रहा उन का तरफ़-दार रहा
उम्र हँस-खेल के इस तरह गुज़ारी ऐ 'हिज्र'
दोस्त का दोस्त रहा यार का मैं यार रहा
ग़ज़ल
कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा
हिज्र नाज़िम अली ख़ान