शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं
फिर करोगे कभी इस मुँह से शिकायत मेरी
फ़ानी बदायुनी
दो अलग लफ़्ज़ नहीं हिज्र ओ विसाल
एक में एक की गोयाई है
फ़रहत एहसास
हिज्र ओ विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में
अक्सर दोनों गुल रहते हैं और जला करता हूँ मैं
फ़रहत एहसास
उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं
तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है
फ़रहत एहसास
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
फ़िराक़ गोरखपुरी
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात
फ़िराक़ गोरखपुरी
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं
ग़ुलाम हुसैन साजिद