जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल
क्या ख़बर अहल-ए-मोहब्बत का तराना बन जाए
अहमद फ़राज़
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
अहमद फ़राज़
हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में
वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं
अहमद मुश्ताक़
मिलने की ये कौन घड़ी थी
बाहर हिज्र की रात खड़ी थी
अहमद मुश्ताक़
यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है
जैसे काटी हों तिरे हिज्र की रातें कहीं और
अहमद मुश्ताक़
ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएँ
वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे
अहमद नदीम क़ासमी
मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ
मैं तेरे बग़ैर जी रहा हूँ
अहमद नदीम क़ासमी