घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है
राहत इंदौरी
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हमें ख़बर है ज़न-ए-फ़ाहिशा है ये दुनिया
सो हम भी साथ इसे बे-निकाह रखते हैं
सहबा अख़्तर
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देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
साहिर लुधियानवी
दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
साहिर लुधियानवी
जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़
वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली
साक़ी फ़ारुक़ी
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ
शाद अज़ीमाबादी
चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय
नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है
शहाब जाफ़री