किस ख़राबी से ज़िंदगी 'फ़ानी'
इस जहान-ए-ख़राब में गुज़री
फ़ानी बदायुनी
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
अब भी कुछ लोग हैं ज़िंदा कि जहाँ बाक़ी है
फ़रियाद आज़र
एक ख़्वाब-ओ-ख़याल है दुनिया
ए'तिबार-ए-नज़र को क्या कहिए
फ़िगार उन्नावी
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है
फ़िराक़ गोरखपुरी
दुनिया तो चाहती है यूँही फ़ासले रहें
दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल
हबीब जालिब
कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
दुनिया है तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर नहीं है
हफ़ीज़ बनारसी
दुनिया बस इस से और ज़ियादा नहीं है कुछ
कुछ रोज़ हैं गुज़ारने और कुछ गुज़र गए
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा