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ताबाँ अब्दुल हई शायरी | शाही शायरी

ताबाँ अब्दुल हई शेर

67 शेर

हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
अगर इस दिल पे होता हाए कुछ भी इख़्तियार अपना

ताबाँ अब्दुल हई




हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अहल-ए-ज़ुन्नार कहीं साहब-ए-इस्लाम कहीं

ताबाँ अब्दुल हई




हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
ताइर को क़फ़स से भी कहीं हो है मोहब्बत

ताबाँ अब्दुल हई




ईमान ओ दीं से 'ताबाँ' कुछ काम नहीं है हम को
साक़ी हो और मय हो दुनिया हो और हम हों

ताबाँ अब्दुल हई




इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती
काश बनता मैं बरहमन ही मुसलमाँ के एवज़

ताबाँ अब्दुल हई




जब तलक रहे जीता चाहिए हँसे बोले
आदमी को चुप रहना मौत की निशानी है

ताबाँ अब्दुल हई




जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रौशनाई शम्अ की फीकी नज़र आती है सुब्ह

ताबाँ अब्दुल हई




कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
ये हुर्मत जिस की हो ऐ शैख़ क्या तेरा वो मक्का है

ताबाँ अब्दुल हई




कई फ़ाक़ों में ईद आई है
आज तू हो तो जान हम-आग़ोश

ताबाँ अब्दुल हई