ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं
चाहने वाले को होता भी है आराम कहीं
वस्ल हो वस्ल इलाही कि मुझे ताब नहीं
दूर हूँ दूर मिरे हिज्र के अय्याम कहीं
लग रही हैं तिरे आशिक़ की जो आँखें छत से
तुज को देखा था मगर उन ने लब-ए-बाम कहीं
आशिक़ों के भी लड़ाने की तुझे क्या ढब है
चश्म-बाज़ी है कहीं बोसा ओ पैग़ाम कहीं
यमनी की सी तरह लख़्त-ए-जिगर पर खोदूँ
मुज को मालूम अगर होवे तिरा नाम कहीं
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अहल-ए-ज़ुन्नार कहीं साहब-ए-इस्लाम कहीं
आरज़ू है मिरे 'ताबाँ' को भी अब ऐ क़ातिल
कि बर आए तिरे हाथों से मिरा काम कहीं
ग़ज़ल
ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं
ताबाँ अब्दुल हई