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मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है | शाही शायरी
mera KHurshid-ru sab mah-ruyan bich yakka hai

ग़ज़ल

मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है

ताबाँ अब्दुल हई

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मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है
कि हर जल्वे में उस के क्या कहूँ और ही झमक्का है

नहीं होने का चंगा गर सुलैमानी लगे मरहम
हमारे दिल पे कारी ज़ख़्म उस नावक पलक का है

कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
ये हुर्मत जिस की हो ऐ शैख़ क्या तेरा वो मक्का है

हर इक दिल के तईं ले कर वो चंचल भाग जाता है
सितमगर है जफ़ा-जू है शराबी है उचक्का है

न जा वाइज़ की बातों पर हमेशा मय को पी 'ताबाँ'
अबस डरता है तू दोज़ख़ से इक शरई दरक्का है