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ताबाँ अब्दुल हई शायरी | शाही शायरी

ताबाँ अब्दुल हई शेर

67 शेर

ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
मज़हब में मिरे कुफ़्र है इंकार बुताँ का

ताबाँ अब्दुल हई




अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
हमें भी जानता है ख़ूब इक आलम मियाँ-साहिब

ताबाँ अब्दुल हई




आतिश-ए-इश्क़ में जो जल न मरें
इश्क़ के फ़न में वो अनारी हैं

ताबाँ अब्दुल हई




आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
कोई ग़म तो उस का दिल से हमारे जुदा नहीं

ताबाँ अब्दुल हई




आता है मोहतसिब पए-ताज़ीर मय-कशो
पगड़ी को उस की फेंक दो दाढ़ी को लो उखाड़

ताबाँ अब्दुल हई




आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
दर ओ दीवार तुझे देख के हैरान है आज

ताबाँ अब्दुल हई




आईना रू-ब-रू रख और अपनी छब दिखाना
क्या ख़ुद-पसंदियाँ हैं क्या ख़ुद-नुमाईयाँ हैं

ताबाँ अब्दुल हई




हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
कब इस ख़ूबी से ऐ ज़ाहिद तिरा बैत-ए-हरम होगा

ताबाँ अब्दुल हई




हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
कि याँ हर एक को है मर्तबा ख़ुदाई का

ताबाँ अब्दुल हई