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कई दिन हो गए या-रब नहीं देखा है यार अपना | शाही शायरी
kai din ho gae ya-rab nahin dekha hai yar apna

ग़ज़ल

कई दिन हो गए या-रब नहीं देखा है यार अपना

ताबाँ अब्दुल हई

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कई दिन हो गए या-रब नहीं देखा है यार अपना
हुआ मालूम यूँ शायद किया कम उन ने प्यार अपना

हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
अगर इस दिल पे होता हाए कुछ भी इख़्तियार अपना

ये दोनो लाज़िम-ओ-मलज़ूम हैं गोया कि आपस में
न यार अपना कभू होते सुनाने रोज़गार अपना

हुआ हूँ ख़ाक उस के ग़म में तो भी सीना-साफ़ी से
नहीं खोता है वो आईना-रू दिल से ग़ुबार अपना

ये शोअ'ला सा तुम्हारा रंग कुछ ज़ोर ही झमकता है
जला क्यूँकर न दूँ मैं ख़िर्मन-ए-सब्र-ओ-क़रार अपना

सर-ए-फ़ितराक था उस को न था लेकिन नसीबों में
तड़पता छोड़ कर जाता रहा ज़ालिम शिकार अपना

तुझे लाज़िम है होना मेहरबाँ 'ताबाँ' प ऐ ज़ालिम
कि है बेताब अपना आशिक़ अपना बे-क़रार अपना