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ताबाँ अब्दुल हई शायरी | शाही शायरी

ताबाँ अब्दुल हई शेर

67 शेर

तू कौन है ऐ वाइज़ जो मुझ को डराता है
मैं की भी हैं तो की हैं अल्लाह की तक़्सीरें

ताबाँ अब्दुल हई




तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
आह क्या चाहना ऐसा ही बुरा होता है

ताबाँ अब्दुल हई




तुम इस क़दर जो निडर हो के ज़ुल्म करते हो
बुताँ हमारा तुम्हारा कोई ख़ुदा भी है

ताबाँ अब्दुल हई




तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
वही है मिरे हक़ में रूह-उल-अमीं

ताबाँ अब्दुल हई




तक रहा है ये कोई सोने की चिड़िया आ फँसे
दाम-ए-सुब्हा ले के ज़ाहिद गिर्या-ए-मिस्कीं की तरह

ताबाँ अब्दुल हई




'ताबाँ' ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
अब मैं हूँ और दश्त है ये सर है और पहाड़

ताबाँ अब्दुल हई




सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
जिसे नाक़ूस की आए सदा ख़ुश

ताबाँ अब्दुल हई




बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम
कि बे-कसों के सताए से कुछ भला भी है

ताबाँ अब्दुल हई




ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के

ताबाँ अब्दुल हई