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हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत | शाही शायरी
ho ruh ke tain jism se kis tarah mohabbat

ग़ज़ल

हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत

ताबाँ अब्दुल हई

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हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
ताइर को क़फ़स से भी कहीं हो है मोहब्बत

गो ज़िल्ल-ए-हुमा मत हो रहे सर पे हमारे
ता-हश्र तेरा साया-ए-दीवार सलामत

अतवार तिरे बाइस-ए-आफ़ात-ए-जहाँ हैं
आसार तिरे हैंगे सब आसार-ए-क़यामत

सय्याद न अब बे-पर-ओ-बालों को तू अब छोड़
फिर हसरत-ए-गुल देगी हमें सख़्त अज़िय्यत

अस्बाब जहाँ की तो दिला फ़िक्र न कर तू
हासिल नहीं कुछ इस में ब-जुज़ रंज-ओ-मशक़्क़त

छोड़ूँगा न मैं तुझ को तिरे ख़त के भी आए
तू तब भी न हो यार तो ये भी मिरी क़िस्मत

'ताबाँ' तू सदा सैर हर इक गुल की किया कर
इस गुलशन-ए-हस्ती का नज़ारा है ग़नीमत