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बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा | शाही शायरी
bas ek mah-e-junun-KHez ki ziya ke siwa

ग़ज़ल

बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा

मुनीर नियाज़ी

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बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा
नगर में कुछ नहीं बाक़ी रहा हवा के सिवा

है एक और भी सूरत कहीं मिरी ही तरह
इक और शहर भी है क़र्या-ए-सदा के सिवा

इक और सम्त भी है उस से जा के मिलने की
निशान और भी है एक निशान-ए-पा के सिवा

ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा

मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपहर-ओ-ज़मीं
दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा

मिरी ही ख़्वाहिशें बाइ'स हैं मेरे ग़म की 'मुनीर'
अज़ाब मुझ पे नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ के सिवा