ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
दुनिया से ख़ामुशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
इक ख़्वाब हैं जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाएँ हम तो क्या
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ग़ज़ल
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी