सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो 
किवाड़ खोल के देखो कहीं हवा ही न हो 
निगाह-ए-आईना मालूम अक्स ना-मालूम 
दिखाई देता है जो असल में छुपा ही न हो 
ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी 
ये शहर जम के खड़ा है जो तैरता ही न हो 
न जा कि इस से परे दश्त-ए-मर्ग हो शायद 
पलटना चाहें वहाँ से तो रास्ता ही न हो 
मैं इस ख़याल से जाता नहीं वतन की तरफ़ 
कि मुझ को देख के उस बुत का जी बुरा ही न हो 
कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर' 
मज़ा तो जब है कि उस शोख़ को पता ही न हो
        ग़ज़ल
सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो
मुनीर नियाज़ी

